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Friday, April 24, 2015

श्री कृष्ण का मुंडन संस्कार की लीला - Sri Krishna



उस समय व्रज के लोगों का मुख्य व्यवसाय (profession) गौ-चारण ही था इसलिए मुख्य व्यवसाय से सम्बंधित कुछ वर्जनाएं भी थी।  अब इसे वर्जनाएं कहें या सामाजिक नियम बालक का जब तक मुंडन नहीं हो जाता तब तक उसे जंगल में गाय चराने नहीं जाने दिया जाता था।

अब तो हम काफी आधुनिक (modern) हो गये हैं या यूं कह सकते हैं अपनी जड़ों से दूर हो गये हैं नहीं तो हमारे
यहाँ भी बालक को मुंडन के पहले ऐसी-वैसी जगह नहीं जाने दिया जाता था। 

खैर....बालक कृष्ण रोज़ अपने परिवार के व पडौस के सभी पुरुषों को, थोड़े बड़े लड़कों को गाय चराने जाते
देखते तो उनका भी मन करता पर मैया यशोदा उन्हें मना कर देती कि अभी तू छोटा है, थोड़ा बड़ा हो
जा फिर जाने दूँगी।

एक दिन बलराम जी को गाय चराने जाते देख कर लाला अड़ गये –"दाऊ जाते हैं तो मैं भी गाय चराने
जाऊंगा....ये क्या बात हुई....वो बड़े और मैं छोटा ?" मैया ने समझाया कि दाऊ का मुंडन हो चुका है
इसलिए वो जा सकते हैं, तुम्हारा मुंडन हो जायेगा तो तुम भी जा सकोगे।

लाला को चिंता हुई इतनी सुन्दर लटें रखे या गाय चराने जाएँ। बहुत सोच विचार के बाद उन्होंने सोचा
कि लटें तो फिर से उग जायेगी पर गाय चराने का इतना आनंद अब मुझसे दूर नही रहना चाहिए।
तुरंत नन्दबाबा से बोले –"कल ही मेरा मुंडन करा दो....मुझे गाय चराने जाना है।

नंदबाबा हँस के बोले –“ऐसे कैसे करा दें मुंडन....हमारे लाला के मुंडन में तो जोरदार आयोजन करेंगे."
लाला ने अधीरता से कहा –"जो करना है करो पर मुझे गाय चराने जाना है....आप जल्दी से जल्दी मेरा
मुंडन करवाओ। " 

मुंडन तो करवाना ही था अतः नंदबाबा ने गर्गाचार्य जी से लाला के मुंडन का मुहूर्त निकलवाया । निकट में अक्षय तृतीया का दिन शुभ था इसलिए उस दिन मुंडन का आयोजन तय हुआ। न्यौते बांटे गये कई तैयारियां की गयी। आखिर वो दिन आया. जोरदार आयोजन हुआ, मुंडन हुआ और मुंडन होते ही लाला मैया से बोले –"मैया मुझे कलेवा नाश्ता दो....मुझे गाय चराने जाना है । " मैया बोली –"इतने मेहमान आये हैं घर में तुम्हें देखने और तुम हो कि इतनी गर्मी में गाय चराने जाना है....थोड़े दिन रुको गर्मी कम पड़ जाए तो मैं तुम्हें
दाऊ के साथ भेज दूँगी । " 

लाला भी अड़ गये –"ऐसा थोड़े होता है....मैंने तो गाय चराने के लिए ही मुंडन कराया था....नहीं तो मैं
इतनी सुन्दर लटों को काटने देता क्या....मैं कुछ नहीं जानता....मैं तो आज और अभी ही जाऊंगा गाय
चराने । "   मैया ने नन्द बाबा को बुला कर कहा –"लाला मान नहीं रहा....थोड़ी दूर तक आप इसके साथ हो
आइये....इसका मन भी बहल जायेगा....क्योंकि इस गर्मी में मैं इसे दाऊ के साथ या अकेले तो भेजूंगी
नहीं । " 

नन्द बाबा सब को छोड़ कर निकले. लाला भी पूरी तैयारी के साथ छड़ी, बंसी, कलेवे की पोटली ले कर
निकले एक बछिया भी ले ली जिसे हुर्र....हुर्र कर चरा कर वो अपने मन में ही बहुत खुश हो रहे थे....कि आखिर
मैं बड़ा हो ही गया।  बचपन में सब बड़े होने के पीछे भागते हैं कि कब हम बड़े होगे....और आज हम बड़े सोचते हैं कि हम बच्चे ही रहते तो कितना अच्छा था।  

खैर....गर्मी भी वैशाख माह की थी और व्रज में तो वैसे भी गर्मी प्रचंड होती है। थोड़ी ही देर में बालक
श्री कृष्ण गर्मी से बेहाल हो गये पर अपनी जिद के आगे हार कैसे मानते....बाबा को कहते कैसे की थक
गया हूँ....अब घर ले चलो....सो चलते रहे....मैया होती तो खुद समझ के लाला को घर ले आती पर बाबा
थे....चलते रहे।  रास्ते में ललिता जी और कुछ अन्य सखियाँ मिली। देखते ही लाला की हालत समझ गयी. गर्मी से कृष्ण का मुख लाल हो गया था सिर पर बाल भी नही थे इसलिए लाला पसीना-पसीना हो गये थे।
उन्होंने नन्द बाबा से कहा कि आप इसे हमारे पास छोड़ जाओ. हम इसे कुछ देर बाद नंदालय पहुंचा देंगे।
नंदबाबा को रवाना कर वो लाला को निकट ही अपने कुंज में ले गयीं । 

उन्होंने बालक कृष्ण को कदम्ब की शीतल छांया में बिठाया और अपनी अन्य सखी को घर से चन्दन, खरबूजे के बीज, मिश्री का पका बूरा, इलायची, मिश्री आदि लाने को कहा । सभी सामग्री लाकर उन सखियों ने प्रेम भाव से कृष्ण के तन पर चन्दन की गोटियाँ लगाई और सिर पर चन्दन का लेप किया । कुछ सखियों ने पास में ही बूरे और खरबूजे के बीज के लड्डू बना दिए और इलायची को पीस कर मिश्री के रस में मिला कर शीतल शरबत तैयार कर दिया और बालक कृष्ण को प्रेमपूर्वक आरोगाया ।

साथ ही ललिता जी लाला को पंखा झलने लगी। यह सब अरोग कर लाला को नींद आने लगी तो ललिताजी ने उन्हें वहीँ सोने को कहा और स्वयं उन्हें पंखा झलती रही । कुछ देर आराम करने के बाद लाला उठे और ललिता जी उन्हें नंदालय छोड़ आयीं। आज भी अक्षय-तृतीया के दिन प्रभु को ललिता जी के भाव से बीज के लड्डू और इलायची का शीतल शर्बत आरोगाये जाते हैं व विशेष रूप से केशर मिश्रित चन्दन जिसमें मलयगिरी पर्वत का चन्दन भी मिश्रित होता है की गोटियाँ लगायी जाती हैं । लाला ने गर्मी में गाय चराने का विचार त्याग
दिया था। औपचारिक रूप से श्री कृष्ण ने गौ-चारण उसी वर्ष गोपाष्टमी (दीपावली के बाद वाली अष्टमी) के दिन से प्रारंभ किया और इसी दिन से उन्हें गोपाल कहा जाता है।

वर्ष में एक ये ही दिन ऐसा होता है जब बीज के लड्डू अकेले श्रीजी को आरोगाये जाते हैं अन्यथा अन्य
दिनों में बीज के लड्डू के साथ चिरोंजी के लड्डू भी आरोगाये जाते हैं

- जय श्री राधे राधे !!

Friday, April 10, 2015

भगवान श्री कृष्ण की पीठ के दर्शन क्यों नहीं करने चाहिये


भगवान श्री कृष्ण की पीठ के दर्शन क्यों नहीं करने चाहिये 


कहते है भगवान श्रीकृष्ण की पीठ के दर्शन नहीं करना चाहिए, दरअसल पीठ के दर्शन न करने के संबंध में भगवान श्रीकृष्ण के अवतार की एक कथा प्रचलित है. कथा के अनुसार जब श्रीकृष्ण जरासंध से युद्ध कर रहे थे तब जरासंध का एक साथी असुर कालयवन भी भगवान से युद्ध करने आ पहुंचा. कालयवन श्रीकृष्ण के सामने पहुंचकर ललकारने लगा.

तब श्रीकृष्ण वहां से भाग निकले. इस तरह रणभूमि से भागने के कारण ही उनका नाम रणछोड़ पड़ा. जब श्रीकृष्ण भाग रहे थे तब कालयवन भी उनके पीछे-पीछे भागने लगा. इस तरह भगवान रणभूमि से भागे क्योंकि कालयवन के पिछले जन्मों के पुण्य बहुत अधिक थे और कृष्ण किसी को भी तब तक सजा नहीं देते जब कि पुण्य का बल शेष रहता है.

जिस तरह शिशुपाल की गालिया भी भगवान तब तक सुनते रहे जब तक उसके पुण्य शेष थे.गालियाँ पूरी होते ही जैसे ही उसके पुण्य क्षीण हुए भगवान ने चक्र से उसकी गर्दन को काट दी.


इसी तरह कालयवन कृष्णा की पीठ देखते हुए भागने लगा और इसी तरह उसका अधर्म बढऩे लगा क्योंकि भगवान की पीठ पर अधर्म का वास होता है और उसके दर्शन करने से अधर्म बढ़ता है.

"धर्म: स्तनोंsधर्मपथोsस्य पृष्ठम् " श्रीमद्भागवत में द्वितीय स्कंध के, द्वितीय अध्याय के श्लोक ३२ में शुकदेव जी राजा परीक्षित को भगवान के विराट स्वरूप का वर्णन करते हुए कह रहे है- कि धर्म भगवान का स्तन और अधर्म पीठ है.

जब कालयवन के पुण्य का प्रभाव खत्म हो गया कृष्ण एक गुफा में चले गए. जहां मुचुकुंद नामक राजा निद्रासन में था. मुचुकुंद को देवराज इंद्र का वरदान था कि जो भी व्यक्ति राजा को निंद से जगाएगा और राजा की नजर पढ़ते ही वह भस्म हो जाएगा. कालयवन ने मुचुकुंद को कृष्ण समझकर उठा दिया और राजा की नजर पढ़ते ही राक्षस वहीं भस्म हो गया.

अत: भगवान श्री हरि की पीठ के दर्शन नहीं करने चाहिए क्योंकि इससे हमारे पुण्य कर्म का प्रभाव कम होता है और अधर्म बढ़ता है. कृष्णजी के हमेशा ही मुख की ओर से ही दर्शन करें. यदि भूलवश उनकी पीठ के दर्शन हो जाते हैं और भगवान से क्षमा याचना करनी चाहिए.

- जय श्री राधे राधे !!

Tuesday, April 7, 2015

राधा नाम की महिमा - Radhe Naam Ki Mahima

एक व्यक्ति था, एक बार एक संत उसके नगर में आये ! वह उनके दर्शन करने गया और संत से बोला - स्वामी जी ! मेरा एक बेटा है, वो न तो भगवान को मानता है, न ही पूजा-पाठ करता है, जब उससे कहो तो कहता है मै किसी संत को नहीं मानता, अब आप ही उसे समझाइये,स्वामी जी ने कहा - ठीक है, मैं तुम्हारे घर आऊँगा.




एक दिन वे उसके घर गए और उसके बेटे से बोले -बेटा एक बार कहो : राधा, बेटा बोला : मै क्यों कहूँ,स्वामीजी ने बहुत बार कहा, अंत में वह बोला मै ‘राधा’ क्यों कहूँ ! स्वामी जी ने कहा - जब तुम मर जाओ तो मरने पर यमराज से पूँछना कि एक बार राधा नाम लेने की क्या महिमा है, इतना कहकर वे चले गए ! एक दिन वह मर गया : यमराज के पास पहुँच गया, तब उसने पूँछा - आप मुझे बताये कि एक बार राधा नाम लेने की क्या महिमा है?

यमराज ने कहा - मुझे नहीं पता कि क्या महिमा है, शायद इन्द्र को पता होगा, चलो उससे पूछते है ! जब उसने देखा की यमराज तो कुछ ढीले पड़ रहे है, तो बोला- मै ऐसे नहीं जाऊँगा, पालकी मँगाओ, तुरंत पालकी आ गयी, उसने कहार से बोला - आप हटो, यमराज जी आप इसकी जगह लग जाओ ! यमराज लग गए, इंद्र के पास गए !

इंद्र ने पूछा – ये कोई खास है क्या? यमराज जी ने कहा-ये पृथ्वी से आया है और एक बार राधा नाम लेने की क्या महिमा है - पूँछ रहा है ! आप बताइये,

इंद्र ने कहा - महिमा तो बहुत है, पर क्या है - ये नहीं पता, ये तो ब्रह्मा जी ही बता सकते है !

व्यक्ति बोला - तुमभी पालकी में लग जाओ, अब उसकी पालकी में एक ओर यमराज दूसरी ओर इंद्र लग गए और ब्रह्मा जी के पास पहुँचे !

ब्रह्मा जी ने कहा- ये कोई महान व्यक्ति लगता है, जिसे ये पालकी में लेकर आ रहे है ! ब्रह्मा जी ने पूँछा : ये कौन है? तो यमराज जी ने कहा - ये पृथ्वी से आया है और एक बार 'राधा' नाम लेने की क्या महिमा है - पूँछ रहा है ! आप को तो पता ही होगा !

ब्रह्मा जी ने कहा –महिमा तो अनंत है, पर ठीक- ठीक तो मुझे भी नहीं पता, शंकरजी ही बता सकते है ! व्यक्ति ने कहा - तीसरी जगह पालकी में आप लग जाइये, ब्रह्मा जी भी लग गए ! पालकी लेकर शंकरजी के पास गए ! शंकरजी ने कहा ये कोई खास लगता है, जिसकी पालकी को यमराज, इंद्र, ब्रह्मा जी, लेकर आ रहे है, पूँछा तो ब्रह्मा जी ने कहा: ये पृथ्वी से आया है और एक बार राधा-नाम लेने की महिमा पूँछ रहा है ! हमें तो पता नहीं, आप को तो जरुर पता होगा, आप तो समाधी में सदा उनका ही ध्यान करते है

शंकर जी ने कहा - हाँ, पर ठीक प्रकार से तो मुझे भी नहीं पता, विष्णु जी ही बता सकते है ! व्यक्ति ने कहा – आप भी चौथी जगह लग जाइये, अब शंकर जी भी पालकी में लग गए !

अब चारो विष्णुजी के पास गए और पूँछा कि एक बार 'राधा-नाम' लेने की क्या महिमा है -

भगवान ने कहा : राधा नाम की यही महिमा है कि इसकी पालकी, आप जैसे देव उठा रहे है, ये अब मेरी गोद में बैठने का अधिकारी हो गए है !



“ जय जय श्री राधे ”


परम प्रिय श्री राधा-नाम की महिमा का स्वयं श्री कृष्ण ने इस प्रकार गान किया है -
"जिस समय मैं किसी के मुख से ’रा’अक्षर सुन लेता हूँ,उसी समय उसे अपना उत्तम भक्ति-प्रेम प्रदानकर देता हूँ और ’धा’ शब्द का उच्चारण करने पर तो मैं प्रियतमा श्री राधा का नाम सुनने के लोभ से उसके पीछे-पीछे चल देता हूँ !""
ब्रज के रसिक संतश्री किशोरी अली जीने इस भाव को प्रकट किया है :-

" आधौ नाम तारि है 
राधा 'र' के कहत रोग सब मिटि हैं, 'ध ' के कहत मिटै सब बाधा
राधा राधा नाम की महिमा, 
गावत वेद पुराण अगाधा अलि किशोरी रटौ निरंतर, 
वेगहि लग जाय भाव समाधा "

Sunday, April 5, 2015

कब कृपा करोगे सांवरिया कब कृपा करोगे बनवारी


वन वन ढूंढ रही थी तुमको बन के जोगन प्रेम दीवानी 

यही सोच के मिलेंगे हम तुम बन जाएगी प्रेम कहानी

है कोई जो मिलन करा दे मेरा प्रियतम मुझे मिला दे  

बिन सोचे बिन कारन ही मैं निकल पड़ी घर छोड़

सायद इस अबला पे तरस खा जाएंगे मन मोहन  

क्यों नहीं अपनाते मुझको अपना दरस दिखाते मुझको

माना की पापिन बहुत बड़ी हु पर तुम भी दयालु कम तो नहीं

मो पे कृपा करो गिरधारी मो पे कृपा करो गिरधारी

कब कृपा करोगे सांवरिया कब कृपा करोगे बनवारी

Kanha - कान्हा तुम्हें पाकर



ए "कान्हा" सुन रहे हो ना अधूरापन खत्म हो जाता है, "कान्हा" तुम्हें पाकर... 

दिल का हर "तार" गुनगुनाता है,  "कान्हा" तुम्हें पाकर... "गम" जाने किधर जाता है, "कान्हा" तुम्हे पाकर...

सब "सिकवे" दूर हो जाते हैं, "कान्हा" तुम्हें पाकर...

जानता हूँ चंद पलों की ज़िन्दगी है मेरी "अफ़सोस" नहीं रहता बाकी, "कान्हा" तुम्हे पाकर...

"राह" तकती हैं, ये लम्बी पगडंडीयां "थक" कर भी चैन पाती हैं, "कान्हा" तुम्हें पाकर...

तमाम "मायुशियाँ" छुप जाती हैं जिंदा "लाश" मानो उठ जाती है,  "कान्हा" तुम्हें पाकर...

"तनहा" मरना सब भूल जाती हूँ "कान्हा" तुम्हारा स्पर्श पाकर... "कान्हा" तुम्हें पाकर...



में तो तेरा पागल प्रेम दीवाना प्रेम करो कृष्णा।।

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